हमेशा ही लोग जीने के लिए कुछ अलग या आधुनिक या दुनियां से परे अनुभव को आजमाते है,या कहूँ की इस्तेमाल करते है.
कोई कितना भी, कैसा भी,
कोई कितना भी, कैसा भी,
किसी को भी अपनाकर देख ले,
हर कोई अपनी उस छवि को और बढ़ाना चाहता है,
जिसमे वो पारंगत है.
पर एक सवाल मन में फिर भी रहता है,
अपने उसी दाएरे में रहना क्या एक जीने की कला है या
कुछ और,?
"मुझे जो लगा शायद वो अलग न हो, अध्भुद न हो पर............."
कुछ लोग हर वक्त सीखते है, जीने के लिए सीखते हैं,
कुछ लोग हर वक्त सीखते है, जीने के लिए सीखते हैं,
या सीख कर जीते हैं, क्यों की जीना पड़ता है.
और कुछ ये बोल कर जीते है की 'मै जैसा हूँ वैसा हूँ,नहीं बदलना,'
सबकी अपनी कला है,
लेकिन सभी लोग सीख कर ही बदलते
है, .

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